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या ते॒ धामा॑नि पर॒माणि॒ याऽव॒मा या म॑ध्य॒मा वि॑श्वकर्मन्नु॒तेमा। शिक्षा॒ सखि॑भ्यो ह॒विषि॑ स्वधावः स्व॒यं य॑जस्व त॒न्वं᳖ वृधा॒नः ॥२१ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

या। ते॒। धामा॑नि। प॒र॒माणि॑। या। अ॒व॒मा। या। म॒ध्य॒मा। वि॒श्व॒क॒र्म॒न्निति॑ विश्वऽकर्मन्। उ॒त। इ॒मा। शिक्ष॑। सखि॑भ्य॒ इति॒ सखि॑ऽभ्यः। ह॒विषि॑। स्व॒धा॒व॒ इति॑ स्वधाऽवः। स्व॒यम्। य॒ज॒स्व॒। त॒न्व᳖म्। वृ॒धा॒नः ॥२१ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:17» मन्त्र:21


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (स्वधावः) बहुत अन्न से युक्त (विश्वकर्मन्) सब उत्तम कर्म करनेवाले जगदीश्वर ! (ते) आप की सृष्टि में (या) जो (परमाणि) उत्तम (या) जो (अवमा) निकृष्ट (या) जो (मध्यमा) मध्यकक्षा के (धामानि) सब पदार्थों के आधारभूत जन्मस्थान तथा नाम हैं (इमा) इन सब को (हविषि) देने-लेने योग्य व्यवहार में (स्वयम्) आप (यजस्व) सङ्गत कीजिये (उत) और हमारे (तन्वम्) शरीर की (वृधानः) उन्नति करते हुए (सखिभ्यः) आपकी आज्ञापालक हम मित्रों के लिये (शिक्ष) शुभगुणों का उपदेश कीजिये ॥२१ ॥
भावार्थभाषाः - जैसे इस संसार में ईश्वर ने निकृष्ट, मध्यम और उत्तम वस्तु तथा स्थान रचे हैं, वैसे ही सभापति आदि को चाहिये कि तीन प्रकार के स्थान रच, वस्तुओं को प्राप्त हो, ब्रह्मचर्य से शरीर का बल बढ़ा और मित्रों को अच्छी शिक्षा देके ऐश्वर्ययुक्त होवें ॥२१ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(या) यानि। अत्र शेर्लुक् (ते) तव परमात्मनः (धामानि) दधति पदार्थान् येषु यैर्वा तानि जन्मस्थाननामानि (परमाणि) उत्तमानि (या) यानि (अवमा) कनिष्ठानि (या) यानि (मध्यमा) मध्यमानि मध्यस्थानि (विश्वकर्मन्) समग्रोत्तमकर्मकारिन् (उत) (इमा) इमानि (शिक्ष) शुभगुणानुपदिश। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङः [अष्टा०६.३.१३५] इति दीर्घः (सखिभ्यः) मित्रेभ्यः (हविषि) दातुमादातुमर्हे व्यवहारे (स्वधावः) बह्वन्नयुक्त (स्वयम्) आज्ञापालकेभ्यः (यजस्व) संगच्छस्व (तन्वम्) शरीरम् (वृधानः) वृद्धिं कुर्वन् ॥२१ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्वधावो विश्वकर्मन् जगदीश्वर ! ते सृष्टौ या परमाणि याऽवमा या मध्यमा धामानि सन्ति, तानीमा हविषि स्वयं यजस्व। उताप्यस्माकं तन्वं वृधानोऽस्मभ्यं सखिभ्यः शिक्ष ॥२१ ॥
भावार्थभाषाः - यथेहेश्वरेण निकृष्टमध्यमोत्तमानि वस्तूनि स्थानानि च रचितानि, तथैव सभापत्यादिभिस्त्रिविधानि स्थानानि रचयित्वा वस्तूनि प्राप्य ब्रह्मचर्येण शरीरबलं वर्धयित्वा मित्राणि सुशिक्ष्यैश्वर्ययुक्तैर्भवितव्यम् ॥२१ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या जगात ईश्वराने जशी निकृष्ट, मध्यम, उत्तम वस्तू व स्थाने निर्माण केलेली आहेत तशी राजाने तीन प्रकारची स्थाने निर्माण करून वस्तू प्राप्त कराव्यात. ब्रह्मचर्याने शरीराचे बल वाढवावे व मित्रांना चांगले शिक्षण देऊन ऐश्वर्यसंपन्न करावे.